
Indian Spy in Pakistan Story : पाकिस्तान में जासूस और जासूसी के किस्से तो बहुत आए. लेकिन ये कहानी काफी अलग है. पाकिस्तान की जेल में यातनाएं खाने को मजबूर हो चुके कई जासूसों को इंडिया लौटकर भी मुसीबत ही झेलनी पड़ी. इन्हें देशभक्त बताना तो दूर उन्हें इंटेलिजेंस एजेंसी का हिस्सा भी नहीं माना जाता है. ऐसी दर्जनों कहानियां आपने सुनी होंगी. पर पहली बार ऐसा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को पाकिस्तान की जासूसी करने वाले एक भारतीय को 10 लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की है.
सुप्रीम कोर्ट ने 12 सितंबर 2022 को ये आदेश जारी किया और स्पष्टतौर पर कहा कि 3 हफ्ते के भीतर मुआवजे के पैसे देने होंगे. लेकिन सवाल वही है कि साल 1989 में पाकिस्तान जेल से छूटकर इंडिया लौटे महमूद अंसारी को 33 साल में इंसाफ की एक छोटी सी रोशनी मिली हैं. लेकिन जब 1972 में जब वो इंडिया से पाकिस्तान जासूसी के लिए गए थे तब उनके परिवार और यहां तक की उनकी बीवी को भी इस बारे में पता नहीं था. अचानक उनके गायब होने के बाद उनकी पत्नी को लोग कातिल मानने लगे थे. आज क्राइम की कहानी (Crime Stories in hindi) में जासूस रहे महमूद अंसारी (Jasoos Mahmood Ansari) और उनकी पत्नी वहीदन की जिंदगी से जुड़ी दर्द भरी कहानी....

राजस्थान के कोटा के रहने वाले हैं महमूद अंसारी, कभी डाक विभाग में थे
महमूद अंसारी मूलरूप से राजस्थान के कोटा के रहने वाले हैं. एक वक्त था जब इनका परिवार बेहद खुशहाल था. वो खुद डाक विभाग में सरकारी नौकरी करते थे. 1966 में डाक विभाग में नौकरी शुरू की. इनकी शादी वहीदन से हुई थी. साल 1972 की बात है. उस समय तक उन्हें डाक विभाग में नौकरी करते हुए 6 साल से ज्यादा का समय हो चुका था.
उन्हें स्पेशल ब्यूरो ऑफ इंटेलिजेंस की तरफ से देश के लिए विशेष सेवा देने की बात हुई. वो खुशी-खुशी तैयार हो गए. असल में इन्हें जासूसी और देश के लिए कुछ करने की दिली तमन्ना थी. इसलिए वो तैयार हो गए. फिर उन्हें ट्रेनिंग देने के बाद सीक्रेट ऑपरेशन के लिए पाकिस्तान भेजा गया. दो बार उन्होंने अपने मिशन को पूरा भी किया. लेकिन तीसरी बार वे पाकिस्तानी रेंजर की नजर में आ गए. और आखिरकार पाकिस्तान पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया.

...जब जासूम महमूद अंसारी पाकिस्तान में गिरफ्तार हुए
ये बात है कि 23 दिसंबर 1976 की. इसी तारीख को महमूद अंसारी को जासूसी के आरोप में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था. ये गिरफ्तारी ही उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी बदनियती भी साबित हुई. वहां पाकिस्तान आर्मी में महमूद नौकरी करने लगे थे. इसलिए उनका कोर्ट मार्शल किया गया था. उन पर पाकिस्तान के कानून ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट,1923 की धारा-3 के तहत मुकदमा चलाया गया. और आखिरकार पाकिस्तान कोर्ट ने उन्हें 14 साल तक जेल में रहने की सजा सुनाई.
उधर, महमूद पाकिस्तानी जेल की सलाखों में पहुंचे. और इधर उनकी पत्नी वहीदन पर मुसीबत टूट पड़ी. असल में 1972 से 1976 के बीच तक दो मिशन पर पाकिस्तान गए महमूद जब घर आते थे तो भी खुद को जासूस होने की जानकारी नहीं देते थे. जैसा की नियम-कानून है. लेकिन 1976 के बाद उनका कुछ पता ही नहीं चला. घर पर कोई खोज खबर नहीं. ना पैसे मिलते और ना महमूद का पता. इस तरह एक साल गुजर गए. लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला. परिवार के लोग सोचते थे कि एक पति के कहीं जाने पर उसकी पत्नी को तो जरूर कुछ पता होगा. लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही थी. उन्हें खुद नहीं पता था कि मेरे पति कहां हैं. किस हालत में हैं. जिंदा भी हैं या.... नहीं.
...और पत्नी वहीदन को जब पति महमूद का कातिल मान लिया गया
वहीं, ससुरालवाले ये मानने लगे थे कि कहीं पत्नी ने ही तो पति की हत्या नहीं करा दी. अब ये बात पहले मन में होती थी और समय के साथ लोगों की जुबां पर आने लगी. ऐसा भी समय आया कि लोग ये मान बैठे कि वहीदन ने ही अपने पति महमूद की हत्या करा दी है. यहां तक की पुलिस में शिकायत कर जेल भिजवाने की तैयारी भी हो गई थी.
उधर, जब 1976 में महमूद की कोई खबर नहीं मिल रही थी, उसी समय उनकी गोद में 11 महीने की बेटी थी. वो बच्ची को लेकर दर-दर भटकती थीं. अपने पति की तलाश में. कभी सरकारी डाक विभाग तो कभी दूसरे सरकारी कार्यालय. लेकिन पति की कोई खबर नहीं मिलती. इस तरह 2 साल का वक्त निकल गया. कोई खबर नहीं मिली तो करीबी लोगों ने किसी सड़क हादसे में मरा लिया. तो कुछ लोगों ने वहीदन को ही पति का कातिल मान लिया.
लापता होने के 2 साल बाद आई चिट्ठी ने दी उम्मीद की रौशनी
Jasoos ki Kahani : लेकिन तभी एक चिट्ठी ने वहीदन के लिए एक उम्मीद की रौशनी जगा दी. असल में वो चिट्ठी महमूद ने जेल से भिजवाई थी. जिसमें उन्होंने पहली बार बताया था कि वो पाकिस्तान की जेल में बंद हैं. उन्हें मदद की जरूरत है. तब घरवालों को पता चला कि जिसे मरा समझ रहे थे वो तो जिंदा है. लेकिन सरहद पार पाकिस्तान में. उस पाकिस्तान की जेल में नरक जैसी यातना झेल रहा है. लेकिन अब वहीदन ने जिद ठान ली की कैसे भी अपने पति को छुड़ाकर घर वापस लाना है. लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ. वो घर के एक-एक सामन को बेचती रहीं. कभी सब्जी की ठेली लगाती तो कभी किसी दुकान पर काम करतीं. कई बार बीड़ी बनाने का काम तक किया और उसे बेचा. मजदूरी भी की. ताकी बेटी और अपना पेट पाल सकें. साथ ही अपने पति के लिए जरूरी सामान भी पाकिस्तान की जेल में मुहैया करा सकें.
इस तरह वहीदन ने हर वा काम किया जितना वो कर सकती थीं. पर बेटी को पढ़ाने की जिम्मेदारी निभाती रहीं. और भारत सरकार से भी पति को वापस लाने की मिन्नते करतीं रहीं. लेकिन कोई उम्मीद नहीं मिली. और ना ही किसी ने कभी भरोसा दिया. आखिरकार 1989 के आखिरी महीने में महमूद अंसारी सजा पूरी करके पाकिस्तान की जेल से बाहर निकले और फिर किसी तरह भारत लौटे. इस उम्मीद के साथ कि सरकारी नौकरी करते थे. वतन वापसी हो रही है तो उन्हें देशभक्त का तमगा मिलेगा. नौकरी की पेंशन मिलेगी. और वो सुविधाएं मिलेंगी जिसे खोकर देश की खातिर दुश्मन के देश में मिशन पर चले गए. लेकिन हर जासूस की तरह इन्हें भी निराशा ही हाथ लगी.
उन्होंने नौकरी के लिए पुराने अधिकारियों से संपर्क किया. तब पता चला कि उनकी कोई खबर नहीं मिलने के बाद 31 जुलाई 1980 को ही उनकी सरकारी नौकरी की सेवाएं समाप्त कर दी गईं थीं. इसलिए वो सरकारी अफसरों के चक्कर काटने लगे. प्रशानिक ट्रिब्यूनल में भी याचिका डाली. कई साल तक लड़ाई लड़ी. लेकिन नतीजा सिफर रहा. साल 2000 में उनकी बहाली और बैकवेज की याचिका खारिज कर दी गई. इसके बाद महमूद घर में रखी सभी जेवरात और जमीन बेचकर कानूनी लड़ाई लड़ने लगे. लाखों रुपये का कर्जा ले लिया. और हाई कोर्ट पहुंच गए. लेकिन साल 2017 में राजस्थान हाईकोर्ट ने भी देरी और अधिकार क्षेत्र का हवाला देते हुए उनकी याचिका खारिज कर दी. अब सिर्फ एक ही रास्ता बचा था. वो था सुप्रीम कोर्ट. महमूद अंसारी साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. यहां पर याचिका दायर की. लंबी कानूनी प्रक्रिया चली.
इस दौरान सुनवाई हुई. उसमें सरकार की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (ASG) विक्रमजीत बनर्जी ने कहा था कि इस याचिकाकर्ता यानी खुद को जासूस बताने वाले महमूद अंसारी से राज्य यानी सरकार का कोई लेना-देना नहीं है. कोर्ट में ये भी बताया गया कि महमूद अंसारी को आखिरी बार 19 नवंबर 1976 को पेमेंट की गई थी. इसके बाद से महमूद अंसारी ने खुद ही सैलरी नहीं ली. यानी साल 1977 से महमूद ने कोई सैलरी नहीं ली.
आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के जासूसी मिशन और डाक विभाग में नौकरी करने के सभी दावों और सरकारी पक्ष की भी दलीलें सुनीं. इसके बाद सीजेआई (CJI) यूयू ललित ने पीड़ित के पक्ष में अपना बड़ा फैसला सुनाया. उन्होंने पीड़ित के परिवार की हालत और मुश्किलों को देखते हुए मुआवजे के तौर पर गुजारा भत्ता देने के लिए सरकार को निर्देश दिया. कोर्ट ने पहले सिर्फ 5 लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की थी. लेकिन अब महमूद की 75 साल की उम्र हो चुकी है और इस उम्र में बेटी पर निर्भरता को देखते हुए मुआवजे को बढ़ाकर 10 लाख रुपये करने की घोषणा की गई.
कोर्ट में दावा, इस आधार पर पाकिस्तान में मिली थी महमूद को सजा
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के दौरान एक बड़ी बात भी कही. कोर्ट ने पाकिस्तान कोर्ट के उस फैसले का भी जिक्र किया, जिसमें याचिकाकर्ता यानी महमूद को दोषी करार दिया गया था. कोर्ट में कहा गया कि सजा का आधार पाकिस्तान में एक भारतीय का जासूसी करते हुए पाया जाना नहीं था. बल्कि वो उस समय पाकिस्तानी रेजिमेंट का हिस्सा थे. एक वर्दीधारी सैनिक रहते हुए कुछ गलत कदम उठाए जाने के आरोप में उनका कोर्ट मार्शल किया गया था और फिर सजा दी गई थी.
हालांकि, याचिकाकर्ता के वकील ने साफ कहा था कि वे जासूस थे और भारतीय मिशन पर गए थे. उनका पाकिस्तानी सैनिक से कोई लेनादेना नहीं है. ये भी बताया गया कि उन्हें 1987 में रिहा कर दिया गया था और दो साल तक पाकिस्तान के भारतीय दूतावास में रखा गया था. इसके बाद 1989 में वे भारत लौटे थे.
लेकिन इस पूरी कहानी में भले ही ये कानूनी पहलू हो लेकिन मानवीय पहलू तो ना जाने कितनी पीछे छूट गई. महमूद की बेटी फातिमा कहती हैं कि जिन्होंने देशभक्ति के लिए काम किया उन्हें ही 33 साल इंसाफ के लिए लड़ना पड़ा. और सिर्फ 10 लाख का मुआवजा मिला. एक बेटी को उसके पिता का प्यार नहीं मिला. एक पत्नी को उसके पति का ही एक समय कातिल समझ लिया गया. इतनी मुसीबतें झेलनी पड़ीं. जिसकी कीमत कोई नहीं लगा सकता.